लॉकडाउन द्वारा देश के गरीब, मेहनतकश आम जनता को उनके घरों में बंद करके रखा गया । लेकिन सरकार और पुलिस उत्पीडन पर कोई लॉकडाउन नहीं हैं । इस बीच दिल्ली पुलिस द्वारा कुछ छात्रों, बुद्धिजीवियों व जनांदोलन के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया है । यहाँ तक कि उन पर यू.ए.पी.ए जैसा क्रूर कानून भी लागू किया गया है । इन लोगो का जुर्म यह है कि – ये लोग सी.ए.ए. व एनआरसी विरोधी आन्दोलन में शामिल हुए थे । हाल ही में गिरफ्तार दोनों छात्राओं को पहले गिरफ्तारी के बाद दिल्ली की एक कोर्ट ने उन्हें जमानत देते हुए कहा था कि उनके खिलाफ जो शिकायत है उसमे यूएपीए जैसे क्रूर कानून लागू नहीं होते । लेकिन उनके कान में जूं तक नहीं रेंगी – पुलिस ने जमानत मिलने के बाद कुछ नए झूठे आरोप लगाकर उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया । पुलिस इतने पर ही नहीं रुकी बल्कि इसी तरीके से और भी छात्र-युवाओं पर झूठे आरोप लगाकर गिरफ्तार करने की ताड़ में है । कुल मिलाकर केन्द्र सरकार की अधीनस्थ दिल्ली पुलिस ने इस तरीके से केस बनाया जिससे ये साबित किया जाये कि इन्होने ही दिल्ली दंगो को भड़काया था । बढ़िया ! सच में दिल्ली पुलिस लाजवाब है । दिल्ली चुनाव के पहले भाजपा के एक एम.पी. अनुराग ठाकुर ने घिनौने तरीके से दंगे को उकसाने के लिए नारे लगाये थे “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को” । यही नारा उस समय उग्र हिन्दू सांप्रदायिक अभियान का “रण-हुंकार“ बन गया था । भाजपा का ही एक और नेता प्रवेश वर्मा ने सिर्फ दिल्ली चुनाव के समय ही उत्तेजक, भड़काऊ भाषण नहीं दिया था, उसके उकसाने के बाद ही दिल्ली दंगा हुआ था । इनके खिलाफ पुलिस ने कोई कार्रवाई किया क्या ? नहीं । क्या इनसे किसी भी तरह का पूछताछ किया गया ? नहीं, वह भी नहीं किया । लेकिन जो लोग दिल्ली दंगों के समय गरीब लोगो की मदद किया, दंगा उकसाने का बहाना लेकर उनकी ही गिरफ्तारी हो रही है । यह तो अंधेर नगरी चौपट राजा जैसा हाल है । दिल्ली पुलिस से इससे ज्यादा कुछ उम्मीद करना बेवकूफ़ी होगा, है न ? क्या हम भूल सकते हैं कि दिल्ली दंगे के समय दिल्ली पुलिस ने क्या किया था ? पुलिस ने दंगा रोकने के लिए कोई कोशिश किया ही नहीं, बल्कि हिन्दू सांप्रदायिक लोगों के साथ मिलकर दंगा में भाग लिया था । याद है कि एक बेकसूर मुस्लिम लड़कों को पीटते हुए तबतक राष्ट्र गीत गाने के लिए मजबूर किया गया जब तक कि उनकी मौत न हो जाए । असली बात है जो लोग सच में दंगे के लिए जिम्मेदार हैं उनको छुआ तक भी नहीं गया परन्तु जिन्होंने लोकतंत्र की मांग करते हुए भेदभावपूर्ण सी.ए.ए. कानून के खिलाफ आवाज़ उठाया था, दंगे का विरोध किया, उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है । यह बिलकुल साफ है कि इसके पीछे कुछ साजिश है ।
लेकिन क्या साजिश है ? एक, दिल्ली पुलिस दंगाइयों के रूप में भाजपा-आर एस एस के नेता या कार्यकर्ताओं की भूमिका को छुपाना चाहती है और दंगे का सारा इल्जाम वे उन कार्यकर्ताओं पर डाल रहे हैं जिन्होंने उस समय दंगाइयों के खिलाफ आवाज़ बुलंद किया था । दूसरा, पुलिस जिन्हें गिरफ्तार कर रही है वो छात्र-बुद्धिजीवी सब के लिए बराबरी मतलब लोकतंत्र की मांग उठाते हुए सी.ए.ए.-एनआरसी विरोधी आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं । इनकी गिरफ्तारी द्वारा प्रशासन इस आन्दोलन को कमज़ोर करके, इसे तोड़कर ख़त्म करने के लिए आमादा है । गौर करना चाहिए कि लगातार, सारे अड़चनों को पार कर सीएए विरोधी आन्दोलन जिस तरीके से चल रहा था, लॉकडाउन के बाद फिर से वह लड़ाई उभर कर सामने न आ जाये इसके लिए दिल्ली दंगे के बहाने इसे ख़त्म करने के लिए वे प्रतिबद्ध है । इसलिए मजदूर वर्ग के अगुआ दस्ता को लोकतंत्र पर दिल्ली पुलिस द्वारा किया जा रहे इस क्रूर हमलों की कड़े शब्दों में निंदा करना होगा, इसका विरोध करना होगा और इसके खिलाफ आवाज बुलंद करना पड़ेगा ।
छात्र-युवा-बुद्धिजीवियों में से एक हिस्सा पुलिसिया दमन के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है । कई लोकतान्त्रिक संगठन भी विरोध कर रहे हैं । इस विरोध का हम ज़रुर समर्थन करते हैं । हमारी मांग है जल्द से जल्द गिरफ्तारी का ये घिनौनापन बंद करना होगा, गिरफ्तार किये गये जनांदोलन के कार्यकर्ताओं को बिना शर्त रिहा करना पड़ेगा एवं उन पर लगाया गया यूएपीए और तमाम क्रूर कानून को वापस लेना पड़ेगा । क्या लोकतंत्र पर आरएसएस के नेतृत्व में कट्टर हिन्दुत्ववादी व फासीवादी ताकतों के लगातार हमलों को समाज के सिर्फ इस हिस्से के विरोध से रोका जा सकता ?
असल में और एक चीज पर ध्यान देने की जरुरत है वह है इस समाज के एक बहुत बड़ा हिस्सा बहुत दिनों से ही इस तरीके की फासीवादी ताकतों के हमलों का शिकार बन रहा है । वो है देश की व्यापक बहुसंख्यक जनता, करोड़ों गरीब मेहनतकश लोग । इन मजदूर –मेहनतकशों के लोकतान्त्रिक अधिकार पर व्यापक रूप से हमला चल रहा है । उनके आजीविका के लिए लड़ाई के हर क्षेत्र में लड़ाई और संगठन के अधिकार को लगातार कमज़ोर कर, कुचला जा रह है । रोटी-रोजी के हक़ की मांग के बजाय साम्प्रदायिकता की जहर घोल दिया जा रहा है । समाज के इस बड़े हिस्से की लोकतंत्र के लिए लड़ाई को अलग रख कर क्या छात्र-बुद्धिजीवी वर्ग अपनी लोकतंत्र की मांग को हासिल करने में सक्षम होंगे ?
लोकतंत्र के लिए लड़ाई में और एक पहलू पर भी विचार करना चाहिए । असली बात तो यह है कि लोकतंत्र पर यह हमला कहां ख़त्म होगा ? लोकतंत्र पर एक बार हमला होगा और हम इसका विरोध करेंगे, फिर हमला होगा फिर विरोध करेंगे – क्या इसी तरीका से एक वृत्त के अन्दर हम चक्कर काटते रहेंगे ? साथ साथ और एक वृत्त में भी हम घूम सकते हैं या हकीकत में चक्कर काटते जा रहे हैं । वह है सरकार बदलने का वृत्त – एक के बाद एक भिन्न भिन्न पार्टियों की सरकार बनाने/बदलने के खेल का अंतहीन वृत्त के अन्दर हम चक्कर काटते जा रहे है । लेकिन असली स्थिति में कोई बदलाव नहीं हो रहा । जिसकी भी सरकार बने वह जनता के लोकतंत्र की मांग की ओर ध्यान नहीं देते । यह बात सही है कि सारी पार्टियाँ भाजपा-आरएसएस जैसे फासीवादी पार्टी नहीं है, लेकिन सब के स्वरुप अलोकतांत्रिक है । और ऐसा क्यों नहीं होगा, हर एक पार्टी इस अलोकतांत्रिक, शोषण-उत्पीड़न वाली इस समाज को बरक़रार रखने के लिए पूरे तौर पर प्रयत्न करते हैं – इसे लेकर कोई शक रहना चाहिए क्या ? बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के ऊपर मुट्ठीभर शोषकों द्वारा शोषण और उत्पीडन के आधार पर मौजूदा व्यवस्था टिकी हुई है, क्या इसमें सबके लिए बराबर अधिकार रह सकता ? शोषित और शोषकों के अधिकार कभी एक हो सकता क्या ? अगर यह होता तो शोषक शोषितों का कभी उत्पीड़न नहीं कर सकते थे । इसलिए, इस शोषण आधारित व्यवस्था को बरक़रार रख कर लोकतंत्र के पक्ष में कोई भी खड़ा नहीं हो सकता – इसलिए कोई भी राजनीतिक पार्टी सत्ता हासिल करने के बाद लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी नहीं हो सकती, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार को हड़पने की कोशिश करती है ।
अतः अगर यह सवाल किया जाय कि क्या मौजूदा समाज में ऐसी स्थिति कायम किया जा सकता है जिसमे असली लोकतंत्र स्थापित हो ? या अगर इस सवाल को थोडा दूसरे तरीके से किया जाए कि क्या मौजूदा व्यवस्था में ऐसा स्थिति तैयार की जा सकती है जहां पर सब बराबर रहेगा – न तो सिर पर कोई शासक न ही पैर के नीचे दबा कोई गुलाम ? यही तो असली लोकतंत्र – है न ? चुनाव में मतदान का अधिकार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है कि नहीं – ये सारे मुद्दा सिर्फ लोकतंत्र की बाहरी भेस मात्र है । अगर उस लोकतंत्र के अन्दर बराबरी की नीव ही नहीं रहेगी, तब यह बाहरी भेस भी होगा, खंडित और सीमित । इसलिए हमारा सवाल यह है कि क्या हम लोकतंत्र की लड़ाई को मौजूदा संकीर्ण दायरे में ही देखेंगे या इसकी भविष्य के साथ जोड़कर देखेंगे ? साफ तौर पे कहा जाय तो लोकतंत्र के लिए लड़ाई को हम मौजूदा सीमित, संकुचित लोकतंत्र को बरक़रार रखने की लड़ाई को संकीर्ण दायरे में ही विचार करते रहेंगे या उसको असली लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई के साथ जोड़कर विचार करेंगे ? मौजूदा संकीर्ण दायरे में विचार करने से भी यह समझ में आ रहा है कि छात्र-युवा-बुद्धिजीवियों की लड़ाई की ताकत से इस लोकतंत्र को भी बनाये रखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है । इसलिए खास बात है कि असली लोकतंत्र तब स्थापित हो पायेगा जब मेहनतकश लोगों के हाथों में शासन सत्ता आएगा । कौन ऐसी सच्ची लोकतंत्र की असली लड़ाई को अंजाम दे सकता है? निश्चित रूप से मजदूरवर्ग, जिन्होंने समझा है कि उनका मकसद इस व्यवस्था के अन्दर सिर्फ कुछ अधिकार हासिल करना ही मात्र नहीं है, इस व्यवस्था को तोड़कर नई व्यवस्था की ओर आगे बढ़ना है जहाँ सत्ता रहेगा मजदूर व मेहनतकश जनता के हाथों में । यही है इस समाज की असली व्यापक ताकत क्योंकि मजदूर अपनी वास्तविक स्थिति के कारण इस समाज के शोषण-जुल्म का सामना करते हुए अकेले नहीं बल्कि एकजुट तरीके से हर वक्त जिन्दगी जीने की लड़ाई करने के लिए मजबूर रहते है । देशभर में इनकी एकताबद्ध ताकत ही वो बदलाव लाने में सक्षम है । इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि इन्ही के हाथों में ही मुख्य उत्पादन का नियंत्रण है । मजदूरवर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता एक्ताबद्ध होकर पूरे समाज को ठप्प कर सकती है, सरकार पर जबरदस्त हमला बोल सकता है । करोड़ों मजदूर व मेहनतकशों की संगठित ताकत के सामने खड़ा होने वाले ऐसे दमनकारी शासक का जन्म अभी तक दुनिया में नहीं हुआ, होगा भी नहीं । वे उठ खड़े होने से उनकी ताकत इतनी भयंकर हो सकती है जिससे किसी भी दमनकारी शासन व्यवस्था को वह बहा कर ले जा सकता । इसलिए यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि असली लोकतंत्र की ओर आगे बढ़ने की बात सोचे तो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता की व्यवस्था बदलने की लड़ाई छोड़कर दूसरा कोई रास्ता नहीं है ।
मजदूरवर्ग की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कोई सोच ही सकता है कि मजदूरवर्ग अपनी क्षमता के साथ उठ खड़ा होगा क्या – अगर खड़ा होगा भी तो कब ? यह सवाल उठना लाजिम है । लेकिन विश्व इतिहास ने हमें दिखाया है कि मजदूरवर्ग की ये क्षमता है एवं समाज विज्ञान ने हमें सिखाया कि कभी ना कभी आज न हो तो कल मजदूरवर्ग यह क्षमता हासिल कर उठ खड़ा होगा – उनकी जगह समाज का कोई भी हिस्सा कभी नहीं ले सकता ।
सवाल उठ सकता है कि मजदूर अब लड़ाई नहीं लड़ रहे है, तब कैसे मजदूरवर्ग के क्षमता पर भरोसा रखा जाए ? यह सही बात है कि मजदूर अब लड़ाई के मैदान में नहीं है । शायद आज मजदूर या मेहनतकश पुराने नेताओं की गद्दारी के चलते बिखरे हुए व असंगठित स्थिति में है । लेकिन साथ साथ यह भी सच है कि लगातार शासकवर्ग का हमला झेलते हुए उनके अन्दर भी क्षोभ बढ़ रहे है । मालिकवर्ग और उनकी सरकार ऐसे आधार का नीव डाल रही है । मालिक वर्ग जिस संकट की दौर से गुजर रहा है उससे निकलने के लिए ऐसे हमले उन्हें करना ही पड़ेगा । मालिकवर्ग व उनके सरकार का हमला दिन पर दिन बहुत तेजी से बढ़ रहा है । इतने दिन से मजदूरों को जो अधिकार मिलता था वह भी छीन लिया जा रहा है । और यही हमला मजदूरवर्ग को जागरुक करेगा । धीरे धीरे जगने कि संकेत भी दिखाई दे रहे है । समय समय पर मालिकों के खिलाफ किसी न किसी औद्योगिक क्षेत्र का किसी फैक्ट्री में मजदूरों ने विरोध आन्दोलन में उतर जा रहे हैं । इन लड़ाई के सामने भी बार बार अधिकार, लोकतंत्र की सवाल खड़ा हो जा रहा है । लोकतंत्र स्थापित करने की बात जैसे छात्र-बुद्धिजीवी अपने जिन्दगी की कड़वी सच्चाई से समझ रहे है, उससे भी व्यापक व तीब्र रूप से लाखोँ लाख मजदूर उनकी आजीविका के क्षेत्र में महसूस कर रहे है । हालांकि वे पुरानी नेताओं के विश्वासघात के कारण बिखरे हुए हैं, वास्तव में बिना संगठन के स्थिति में है, आज फिर से वे नए तरीके से बस उठ खड़े होने का संकेत दे रहे हैं । इस लड़ाई में सक्रिय होने की राह में मजदूर अपनी लड़ाई की जरुरत के कारण ही लोकतंत्र के लिए जो लड़ाई है उसमे भी शामिल होंगे । वास्तविक स्थिति जैसे मजदूरों को उस ओर धकेल रहे है, धीरे धीरे वे जागरूक हो रहे है, फिर साथ साथ लोकतंत्र के लिए लड़ाई के पक्ष में जो छात्र-बुद्धिजीवी उतर रहे हैं उन्हें भी समाज का यह व्यापक मेहनतकश जनता, मजदूरवर्ग के क्षमता पर, समाज के असली लोकतंत्र के पक्षधर, असली परिवर्तनशील शक्ति की ओर ध्यान देना पड़ेगा – मजदूर, मेहनतकश जनता की विशाल वाहिनी को जागरूक करने के लिए उन्हें भी सहायता की राह लेना पड़ेगा । इन व्यापक मजदूर मेहनतकश जनता को जागरूक होने के राह को विस्तार करने का काम में हाथ बढ़ाना होगा – शासकों की फासीवादी ताकतों के हमलों की उचित जवाब देने के लिए । उस लड़ाई में निश्चित तौर पे मजदूरवर्ग उनकी अगुआ भूमिका अदा करेंगे । उसकी तैयारी, इस दमन, उत्पीडन, शासकों की क्रूर हमला का सामना करना, इससे मुक्ति की राह तैयार करेगा । यही है अभी के पीटे जाने की हालत से निकलने के लिए असली काम ।
सर्बहारा पथ प्रकाशन
13.06.2020